दुष्कर्म का अपराध गंभीर अपराध है : इलाहाबाद हाईकोर्ट

उत्तर प्रदेश राज्य
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[ KABEER NEWS DESK ]

समाज में महिलाओं के साथ बढ़ रहे बलात्कार जैसे अपराधों पर किसी भी तरह से लगाम लगाने में सरकारें असफल साबित हो रही है जिसके चलते माता पिता अपनी लड़कियों को घर से बाहर भेजने तक से डरते हैं जिसमें हमारा उत्तरप्रदेश सबसे आगे हैं अब ऐसे ही एक मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने एक बहुत बड़ा ऐलान किया है।

इस मामले पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि दुष्कर्म के मामले में सजा का पैमाना पीड़िता या आरोपी की सामाजिक स्थिति पर निर्भर नहीं कर सकता है। यह अभियुक्त के आचरण, यौन प्रताड़ित महिला की स्थिति, उम्र और आपराधिक कृत्य की गंभीरता पर निर्भर होना चाहिए।

साथ ही कोर्ट ने सख्ती बरतते हुए कहा कि महिलाओं पर होने वाली हिंसा के अपराधों से सख्ती से निपटने की जरूरत है। समाज की सुरक्षा और अपराधी को रोकना कानून का स्वीकृत उद्देश्य है और इसे उचित सजा देकर हासिल करना आवश्यक है।

यह आदेश न्यायमूर्ति सुनीत कुमार और न्यायमूर्ति ओम प्रकाश त्रिपाठी की खंडपीठ ने भूरा की आजीवन उम्रकैद की सजा को कम करते हुए सुनाया है। कोर्ट ने इस मामले में याची की उम्रकैद की सजा को अधिक बताते हुए उसे घटाकर 13 साल कर दिया और जुर्माने की राशि भी पांच हजार से कम कर तीन हजार कर दी।

वहीं मामले की जानकारी देते हुए कोर्ट ने बताया कि घटना के समय पीड़िता की उम्र करीब 14 साल और आरोपी की उम्र 19 साल थी। आरोपी विवाहित था और पीड़िता बाद में शादी कर सुखमय जीवन व्यतीत कर रही है। याची वर्तमान में 32 वर्ष का है। धारा 376 (जी) आईपीसी के तहत आरोप के लिए 13 साल की कैद का प्रावधान है। इसलिए वर्तमान तथ्यों, परिस्थितियों और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून को देखते हुए आरोपी को उम्रकैद की सजा के बजाय 13 साल की सजा पर्याप्त होगी।

जिसके चलते याची के खिलाफ मेरठ जिले के दौराला थाने में वर्ष 2009 में रिपोर्ट दर्ज कराई गई थी। आरोप था कि याची और उसके साथी राहुल ने पीड़िता को नशीला पदार्थ सुंघाकर उसके साथ जबरदस्ती की। जिसके तहत निचली अदालत ने उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। जिसके बाद याची ने निचली अदालत के फैसले को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी थी।

जिस पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि दुष्कर्म का अपराध गंभीर अपराध है। शारीरिक घाव ठीक हो सकता है, लेकिन मानसिक घाव हमेशा बना रहता है। कोर्ट ने कहा कि सजा सुनाने वाले न्यायालयों से अपेक्षा की जाती है कि वे सजा के प्रश्न से संबंधित सभी प्रासंगिक तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करें और अपराध की गंभीरता के अनुरूप सजा दें।

अपराध के प्रति सार्वजनिक घृणा को न्यायालय द्वारा उचित सजा के अधिरोपण के माध्यम से प्रतिबिंबित करने की आवश्यकता है। इस तरह के जघन्य अपराध के मामले में दया दिखाना न्याय का उपहास होगा और नरमी की दलील पूरी तरह से गलत है।

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